लगभग एक सदी के अंतराल से सुन रहा हूँ की ,भ्रूण हत्या करना पाप है -वर्तमान में अभियान भी चल रहा है बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ लेकिन वास्तविकता से जो बिलकुल परे है। वो अभियान सिर्फ दीवारों पर लिखने और सरकार के पोस्टर के बिकने के लिए है। औरत को कत्ल करने के मामले ,नवजात बच्ची का शव कूड़े के ढेर में मिलना - आज भी दहेज़ के ही नवविवाहिता को मरना और वर्तमान में सबसे ज्यादा हवस के पुजारियों द्वारा औरतों को अपना शिकार बनाकर अपनी दरिंदगी की प्यास बुझाना। आजकल हालात कुछ ऐसे है ही समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में भी आपराधिक गतिविधियों की ख़बरें ज्यादा होती है। कई बार तो दिल्ली जैसे कांड सामने आज भी आते है तो रूह कांप उठती है की देव-ऋषि-मुनियों की इस धरती पर कैसा ये कलयुगी मानस जन्म ले रहा है।
जब भी कोई त्यौहार या पर्व आता है आरती के गुणगान के बरावर औरत को स्थान दिया जाता है। लेकिन सत्य रूप से औरत के साथ समाज में अन्याय होता है। पूर्ण रूप से इसके लिए पुरुष वर्ग ही दोषी नहीं है। कई स्थानों या बातों में औरत भी इस कथनी और करनी में बराबर की हिस्सेदार होती है।
अक्सर पढ़ा और सुना होगा -
गरीबी मर्दों के कपडे उतरवा देती है
और अमीरी औरतों के ( इसका उदारहण अगर प्रत्यक्ष रूप से देखना होगा तो अपने नज़दीकी किसी भी मॉल या मार्किट में चले जाइये साफ़ दिखेगा )
लेकिन आज भी जहाँ महिलाओं साथ समाज में हो रहा है एक घर के भीतर हो रहा है सबसे अधिक ऐसे केसों में महिला ही महिला के अपमान, निरादर , यहाँ तक की मौत की भी ज़िम्मेदार होती है।
साधारण सी बात है - जब भी कूड़े के ढेर या किसी आवारा कुते के मुह से कोई बच्ची मिलती है तो उसे छोड़ने वाली माँ का दिल कैसा होगा। जब एक बाप अपनी ही बेटी और एक भाई का अपनी ही बहन से दुष्कर्म का मामला सामने आता है तो उस भाई की मानसिकता कैसी होगी। समाज में जब किसी की बहु बेटी का मजाक उड़ाया जाता है - तो उस हंसी के पीछे अंदर ही अंदर जलकर भाप बनने वाले आंसुओं की तपस क्या होगी। इसको कोई समझ नहीं सकता और न ही जान सकता है। लेकिन समाज की मानसिकता तो कहीं न कहीं आईने पर लगे दागों की तरह साफ़ दिखाई देती है कि -- दिवाली आई तो लक्ष्मी पूजा , लक्ष्मी के रूप में बेटी आई तो काम दूजा।
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